भोपाल. मध्यप्रदेश विधानसभा में वैसे तो आज भी ओबीसी आरक्षण का मुद्दा गरमाया रहा. उसी मुद्दे पर हंगामे के बाद 4 दिन के सत्र को डेढ़ ही दिन में खत्म कर दिया गया. लेकिन विधानसभा में लगातार दूसरे दिन असंसदीय शब्दों का इस्तेमाल किया गया. कांग्रेस विधायक काले ऐप्रेन पहनकर सदन में आए उस पर झूठ फरेब जैसे शब्द लिखे थे. विधानसभा की डिक्शनरी में ये सभी शब्द अमर्यादित बताए गए हैं.
पहले दिन आदिवासी दिवस का अवकाश रद्द किए जाने पर सवाल. दूसरे दिन ओबीसी आरक्षण पर बवाल. उम्मीद तो थी कि सदन में जनता से जुड़े मुद्दे उठेंगे और उन पर चर्चा होगी. नये विधायकों को भी शायद पहली बार बोलने का मौका मिल जाए. लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं. सदन में जातिवादी सियासत के दंगल का ऐसा सीन बना कि सदन चार दिन भी नहीं चल पाया.
क्या मौका और क्या दस्तूर
सियासत में ये भी बहुत ज़रूरी है. लेकिन लगा कि कांग्रेस तय स्क्रिप्ट के तहत आई थी कि चार दिन के सत्र में किसी जाति वर्ग के आगे हितैषी बनकर पेश आना है. सत्र के पहले दिन आदिवासियों के सम्मान की लड़ाई बताकर सदन से बाहर आए कांग्रेस विधायक. दूसरे दिन 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण की मांग को लेकर फिर प्रदर्शन किया. इस बार काला एप्रेन पहनकर आए. मांग ये थी कि सरकार को पिछड़ा वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण देने के फैसला करना चाहिए.
शिवराज सरकार भी टस से मस नहीं हुई
लेकिन ओबीसी आरक्षण के मुद्दे पर सरकार भी टस से मस नहीं हुई. सीएम शिवराज ने कमलनाथ सरकार के दौरान का ज़िक्र किया और बताया कि किस तरह 2019 में 14 से 27 फीसदी आरक्षण का प्रावधान लेकर कमलनाथ सरकार आयी. 10 तारीख को कोर्ट में याचिका लगाई. 19 तारीख को कोर्ट ने उस पर स्टे कर दिया. शिवराज ने सवाल किया कि 10 से 19 तारीख तक सरकार ने क्या किया. जब याचिका दाखिल हुई तो उसे रोकने के लिए क्या कदम उठाए गए. 19 तारीख को कोर्ट में सुनवाई के दौरान एडवोकेट जनरल को खड़ा क्यों नहीं किया गया.
सीएम शिवराज ने आगे सवाल किया कि क्या सदन के प्लेटफार्म का इस्तेमाल कांग्रेस ने 2023 के विधानसभा चुनाव को देखते हुए जातियों पर जाल फेंकने के लिए किया था. पहले एसटी वर्ग की 47 सीटों पर पकड़ बढ़ाने आदिवासी के सम्मान का सवाल उठाया. फिर 230 विधानसभा सीटों में से 90 सीटों पर सीधा प्रभाव रखने वाले ओबीसी वोटर पर दांव आज़माया. अब तक इस ओबीसी वोटर को बीजेपी बखूबी साधे हुए हैं. 2003 से अब तक उमा भारती, बाबूलाल गौर और शिवराज सिंह चौहान पार्टी के तीनों मुख्यमंत्री भी इसी वर्ग से हैं. पर सवाल ये है कि जातिवाद की सियासत की भेंट चढ़े इस मानसून सत्र में जनता के हक के कितने सवाल अनसुने रह गए. सरकार के पास विपक्ष के सवालों का क्या एक ही जवाब रह गया है सत्र समय से पहले खत्म कर देना.